कर्नाटक के बेल्लारी स्थित इंस्पायर इंस्टीट्यूट ऑफ़ स्पोर्ट्स की एक सुबह। ट्रैक पर एथलीट्स के कदमों की ताल गूँज रही है। लेकिन कोच अब सिर्फ़ स्टॉपवॉच पकड़े खड़े नहीं हैं। उनके हाथ में टैबलेट है, जिसमें हर कदम का डेटा दिख रहा है—सांसों की गति, मांसपेशियों का दबाव, स्ट्राइड की लंबाई। हाई-स्पीड कैमरे हर मूवमेंट को पकड़ रहे हैं और जूतों में लगे सेंसर सीधे क्लाउड पर डेटा भेज रहे हैं।
यह कोई विज्ञान-कथा नहीं। यही है भारत की नई खेल संस्कृति। दशकों तक भारतीय खिलाड़ी सिर्फ़ जज़्बे और मेहनत के दम पर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उतरे। सुविधाएँ पुरानी थीं, विज्ञान लगभग नदारद। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है।
आज तकनीक—वेयरेबल्स, एआई, बायोमैकेनिक्स, न्यूट्रिशन ट्रैकिंग और वर्चुअल ट्रेनिंग—भारत के खिलाड़ियों का नया “अदृश्य कोच” बन चुकी है।
जुगाड़ से प्रिसिशन तक
स्वतंत्र भारत की शुरुआती खेल यात्रा जुगाड़ से भरी थी। हॉकी की टूटी स्टिक पर टेप लपेटकर खेलना, धूल भरे ट्रैक पर नंगे पाँव दौड़ना, मुक्केबाज़ी बिना सही दस्तानों के करना। प्रतिभा कभी समस्या नहीं थी। समस्या थी बुनियादी ढाँचे की।
लेकिन पिछले दशक में बदलाव तेज़ हुआ। कॉर्पोरेट समर्थित अकादमियाँ (JSW Sports, GoSports, OGQ), सरकारी योजनाएँ (Target Olympic Podium Scheme – TOPS), और वैश्विक सहयोग ने खेल विज्ञान को भारतीय तैयारी में जोड़ा।
अभिनव बिंद्रा—भारत के पहले व्यक्तिगत ओलंपिक स्वर्ण पदक विजेता—ने कहा था:
“प्रतिभा आपको दरवाज़े तक ले जाती है। तकनीक वह चाबी है जो दरवाज़ा खोलती है।”
डेटा: नया कोच
अब खिलाड़ी सिर्फ़ अंदाज़ पर नहीं चलते। हर हरकत मापी जाती है।
- वेयरेबल्स: हार्ट-रेट मॉनिटर, जीपीएस ट्रैकर, स्मार्ट शूज़ मिनट-दर-मिनट परफ़ॉर्मेंस रिकॉर्ड करते हैं।
- बायोमैकेनिक्स लैब्स: कैमरे थ्रो या टैकडाउन को माइक्रो-लेवल पर तोड़कर समझाते हैं।
- एआई एनालिटिक्स: वर्षों का डेटा देखकर चोट का ख़तरा और ट्रेनिंग लोड तय करते हैं।
- स्लीप टेक: सेंसर नींद और रिकवरी पर नज़र रखते हैं।
बेंगलुरु के पदुकोण-द्रविड़ Centre for Sports Excellence में बैडमिंटन खिलाड़ी एआई-आधारित शटल ट्रैकर से ट्रेनिंग करते हैं। सोनीपत के पहलवान फोर्स प्लेट्स से पकड़ की ताक़त और बैलेंस मापते हैं।
नतीजा? अब खिलाड़ी सिर्फ़ ज़्यादा मेहनत नहीं करते—स्मार्ट मेहनत करते हैं।
बायोमैकेनिक्स: तकनीक से नया खेल
नीरज चोपड़ा की भाला फेंक सिर्फ़ बाजुओं की ताक़त नहीं है। हाई-स्पीड सेंसर उनके कूल्हों की मूवमेंट, पैरों के ड्राइव और थ्रो के कोण को मापते हैं। कुछ डिग्री का फर्क मीटरों का अंतर ला सकता है।
मुक्केबाज़ी में पंचिंग एंगल और कलाई की स्थिति सुधारी जाती है। वेटलिफ्टिंग में बारबेल की स्पीड ट्रैक होती है।
तकनीक कोच की जगह नहीं ले रही। बल्कि उन्हें एक्स-रे जैसी नज़र दे रही है।
न्यूट्रिशन: थाली में विज्ञान
अब खिलाड़ियों की थाली सिर्फ़ कैलोरी से नहीं, बल्कि डेटा से भरी है।
- डीएनए टेस्टिंग: कौन खिलाड़ी कार्ब्स या प्रोटीन बेहतर तरीके से पचाता है—यह पहले ही पता।
- स्मार्ट किचन: ऐप्स हर कैलोरी और हाइड्रेशन को ट्रैक करते हैं।
- सप्लिमेंट्स: वैज्ञानिक सलाह से व्यक्तिगत स्तर पर तय।
मीराबाई चानू की टोक्यो 2020 की तैयारी में न्यूट्रिशन पूरा साइंटिफिक प्रोजेक्ट था—वज़न, रिकवरी और एनर्जी का संतुलन।
वर्चुअल ट्रेनिंग और मानसिक मजबूती
खेल आधा शारीरिक है, आधा मानसिक।
- वीआर ट्रेनिंग: निशानेबाज़ वर्चुअल ओलंपिक एरीना में अभ्यास करते हैं।
- न्यूरोफ़ीडबैक: हेडसेट से ब्रेनवेव्स ट्रैक होते हैं, जिससे तनाव में शांति बनी रहती है।
- विज़ुअलाइज़ेशन ऐप्स: जिम्नास्ट वर्चुअल दुनिया में रूटीन “रिहर्स” करते हैं।
अभिनव बिंद्रा ने खुद न्यूरोफ़ीडबैक से शूटिंग का दबाव संभाला था। अब नई पीढ़ी भी वही कर रही है।
तालिका: भारत की ओलंपिक ट्रेनिंग में प्रमुख तकनीकें
तकनीक | उपयोग | खेल |
---|---|---|
वेयरेबल्स | हार्ट-रेट, जीपीएस, लोड ट्रैकिंग | एथलेटिक्स, हॉकी, फ़ुटबॉल |
बायोमैकेनिक्स लैब्स | मूवमेंट और ताक़त का विश्लेषण | भाला फेंक, कुश्ती, मुक्केबाज़ी |
न्यूट्रिशन टेक | डीएनए-बेस्ड डाइट, हाइड्रेशन ऐप | वेटलिफ्टिंग, बैडमिंटन |
वीआर और न्यूरोफ़ीडबैक | मानसिक अभ्यास, तनाव नियंत्रण | शूटिंग, जिम्नास्टिक |
एआई एनालिटिक्स | चोट की भविष्यवाणी, ट्रेनिंग लोड | सभी प्रमुख अकादमियाँ |
ज़मीनी कहानियाँ
पटियाला में एक धाविका ने सिर्फ़ 0.2 सेकंड का सुधार किया—स्ट्राइड सुधार कर।
हरियाणा के पहलवान प्रेशर मैट पर अभ्यास करते हैं ताकि चोट कम हो।
गोपीचंद अकादमी में सिंधु स्मार्ट शटल मशीन से ट्रेनिंग करती हैं।
इनके लिए तकनीक विलासिता नहीं, बल्कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अस्तित्व है।
कॉर्पोरेट और सरकार की भूमिका
तकनीक सस्ती नहीं। इसके पीछे निवेश ज़रूरी है।
- कॉर्पोरेट: JSW Sports ने बायोमैकेनिक्स लैब बनाई। रिलायंस फ़ाउंडेशन ने एथलीट डेवलपमेंट पर निवेश किया।
- सरकार: खेलो इंडिया के तहत हाई-परफ़ॉर्मेंस सेंटर बने।
- प्राइवेट अकादमियाँ: अब परिवार भी साधारण कोचिंग की बजाय टेक-समृद्ध अकादमियाँ चुनते हैं।
यह तालमेल नया है, लेकिन ज़रूरी।
चुनौतियाँ
- एक्सेस गैप: मेट्रो खिलाड़ी टेक पाते हैं, ग्रामीण नहीं।
- ख़र्चा: वेयरेबल्स और लैब्स महँगे हैं।
- विशेषज्ञता: कई क्षेत्रों में विदेशी विशेषज्ञों पर निर्भरता।
- डेटा पर अति: अंकों में उलझकर खिलाड़ी ध्यान भटका सकते हैं।
एक कोच ने कहा था: “तकनीक औज़ार है, सहारा नहीं। दिल अभी भी सबसे बड़ा है।”
दुनिया से सीख
भारत सीख रहा है।
- ऑस्ट्रेलिया: जमीनी स्तर से स्पोर्ट्स साइंस।
- यूके: लॉटरी फंडिंग से विश्वस्तरीय सिस्टम।
- जापान: न्यूट्रिशन और रोबोटिक्स में सटीकता।
भारत की चुनौती है—इन्हें अपने पैमाने और विविधता के मुताबिक ढालना।
पेरिस और आगे
पेरिस 2024 और लॉस एंजेलिस 2028 की ओर बढ़ते हुए भारत की उम्मीदें तकनीक पर टिकी हैं।
भविष्य की झलक:
- एआई से किशोर एथलीट की क्षमता की भविष्यवाणी।
- हर राज्य में बायोमैकेनिक्स लैब।
- गाँव के बच्चे वीआर से ओलंपिक स्टेज की ट्रेनिंग।
- महिला खिलाड़ी डेटा-आधारित न्यूट्रिशन से पिछड़ापन पाटेंगी।
यह सपना नहीं, हक़ीक़त की ओर बढ़ता रास्ता है।
तालिका: भारत की ओलंपिक पदक यात्रा और तकनीक
ओलंपिक | पदक | तकनीक का प्रभाव |
---|---|---|
बीजिंग 2008 | 3 | शुरुआती खेल विज्ञान |
लंदन 2012 | 6 | न्यूट्रिशन और मानसिक ट्रेनिंग |
रियो 2016 | 2 | बायोमैकेनिक्स लैब्स की शुरुआत |
टोक्यो 2020 | 7 | वेयरेबल्स, वीआर, सटीक न्यूट्रिशन |
पेरिस 2024* | TBD | एआई और एनालिटिक्स का पूरा असर |
(* अनुमानित प्रभाव, नतीजे नहीं)
अंतिम सोच
भारत के अगले ओलंपिक चैंपियंस सिर्फ़ पसीने से नहीं बनेंगे। वे बनेंगे—पसीने प्लस सेंसर, मेहनत प्लस सिमुलेशन से।
बेल्लारी के ट्रैक पर दौड़ती वह एथलीट शायद कभी नंगे पाँव दौड़ने वाली पुरानी पीढ़ी को न देख पाए। लेकिन उनकी जिजीविषा उसी मिट्टी से आई है। फर्क सिर्फ़ इतना है—अब उस जज़्बे को तकनीक का साथ मिल गया है।
और जब भविष्य के ओलंपिक में तिरंगा लहराएगा, वह सिर्फ़ एक खिलाड़ी की जीत नहीं होगी। वह भारत की उस कहानी की जीत होगी जिसने आखिरकार विज्ञान, अनुशासन और तकनीक को अपनाया।
जुगाड़ नहीं।
तकनीक और संकल्प।
यही बनाएँगे भारत के अगले चैंपियंस।

अवंती कुलकर्णी — इंडिया लाइव की फीचर राइटर और संपादकीय प्रोड्यूसर। वह इनोवेशन और स्टार्टअप्स, फ़ाइनेंस, स्पोर्ट्स कल्चर और एडवेंचर ट्रैवल पर गहरी, मानवीय रिपोर्टिंग करती हैं। अवंती की पहचान डेटा और मैदान से जुटाई आवाज़ों को जोड़कर लंबी, पढ़ने लायक कहानियाँ लिखने में है—स्पीति की पगडंडियों से लेकर मेघालय की गुफ़ाओं और क्षेत्रीय क्रिकेट लीगों तक। बेंगलुरु में रहती हैं, हिंदी और अंग्रेज़ी—दोनों में लिखती हैं, और मानती हैं: “हेडलाइन से आगे की कहानी ही सच में मायने रखती है।”