अगस्त की उमस भरी दोपहर, रांची के एक धूल भरे मैदान पर लड़कियों का एक समूह नंगे पाँव दौड़ लगा रहा है। पसीना है, हँसी है और आँखों में सपने हैं। उन्हीं में एक किशोरी है जो अगली झूलन गोस्वामी बनने का सपना देखती है। दस साल पहले यह सपना अवास्तविक लगता, शायद लोग हँस भी देते। लेकिन आज? कोई आँख नहीं झपकाता। क्योंकि भारतीय महिला खिलाड़ी सिर्फ़ खेल में उतर नहीं रही हैं—वे जीत रही हैं, प्रेरणा दे रही हैं और यह परिभाषित कर रही हैं कि भारत में खेल का मतलब क्या है।
हरियाणा की कुश्ती की मिट्टी से लेकर मणिपुर के बॉक्सिंग रिंग तक, ओडिशा के हॉकी मैदान से लेकर हैदराबाद की बैडमिंटन अकादमी तक—भारतीय महिलाएँ खेल की नई पहचान गढ़ रही हैं। उनकी कहानियाँ सिर्फ़ पदक जीतने की नहीं हैं। ये कहानियाँ हैं साहस की, धैर्य की और उस राष्ट्रीय कल्पना को बदलने की जो लंबे समय तक पुरुषों और क्रिकेट तक सीमित रही।
पुराने ढाँचे से बाहर निकलना
दशकों तक खेल का मतलब था—पुरुष क्रिकेट। महिलाएँ बस फुटनोट थीं। बुनियादी ढाँचा, निवेश और मीडिया—सब पुरुषों की तरफ़ झुका हुआ था।
यह असंतुलन अभी भी है, लेकिन अब उसमें दरारें पड़ चुकी हैं। पिछले दो दशकों में भारतीय महिला खिलाड़ियों ने उन खेलों में भी दुनिया को चौंकाया जहाँ भारत से कोई उम्मीद नहीं करता था।
मीराबाई चानू ने टोक्यो ओलंपिक में रजत जीता। मैरी कॉम ने छह बार विश्व चैंपियन बनकर मुक्केबाज़ी की परिभाषा बदल दी। साइना नेहवाल और पीवी सिंधु ने बैडमिंटन को प्राइम टाइम टीवी पर ला दिया। साक्षी मलिक ने भारत को महिला पहलवान का पहला ओलंपिक पदक दिलाया। रानी रामपाल ने भारतीय महिला हॉकी टीम को ओलंपिक सेमीफ़ाइनल तक पहुँचाया।
हर पदक सिर्फ़ जीत नहीं था। हर जीत एक स्टीरियोटाइप तोड़ने का हथौड़ा थी।
अभी क्यों?
यह बदलाव अब क्यों आया, पहले क्यों नहीं? कई कारण एक साथ जुड़े:
- ग्रासरूट कार्यक्रम: खेलो इंडिया और निजी अकादमियों ने नई पाइपलाइन बनाई।
- रोल मॉडल: एक मैरी कॉम ने सैकड़ों लड़कियों को बॉक्सिंग की राह दिखाई।
- परिवार का रवैया: माता-पिता अब खेल को बेटियों के लिए करियर मानने लगे हैं।
- मीडिया और सोशल मीडिया: महिला खिलाड़ियों को सीधा दर्शकों से जोड़ दिया।
- कॉरपोरेट समर्थन: अब धीरे-धीरे स्पॉन्सरशिप भी मिलने लगी है।
भारत देर से पहुँचा, लेकिन अब तेज़ी से आगे बढ़ रहा है।
हरियाणा की कुश्ती: चुपचाप क्रांति
हरियाणा के अखाड़े, जो कभी सिर्फ़ लड़कों से भरे रहते थे, अब लड़कियों की ताक़त से गूँज रहे हैं। फोगाट बहनें—गीता, बबीता, विनेश—हर घर का नाम बन गईं। दंगल फ़िल्म ने उनकी कहानी को राष्ट्र की दीवानगी बना दिया।
जहाँ बेटियों को घर से बाहर निकलने से रोका जाता था, वहीं अब हज़ारों की भीड़ में लड़कियाँ दाँव-पेंच दिखाती हैं।
विनेश फोगाट ने कहा था: “हम सिर्फ़ विरोधियों से नहीं, समाज की सोच से भी लड़ रही हैं।”
मणिपुर की बॉक्सिंग: मैरी कॉम की विरासत
मणिपुर जाएँ तो छोटे-छोटे जिम में दस्तानों की आवाज़ गूंजती है। वजह? मैरी कॉम।
छह विश्व खिताब और ओलंपिक पदक ने पूरे उत्तर-पूर्व को गर्व और पहचान दी। इंफाल की लड़कियाँ अब अंतरराष्ट्रीय पोडियम का सपना देखती हैं।
यहाँ बॉक्सिंग सिर्फ़ खेल नहीं, बल्कि पहचान और आत्मसम्मान है।
हॉकी और ओडिशा: हाशिए से सुर्ख़ियों तक
कभी महिला हॉकी हाशिए पर थी। आज ओडिशा ने इसे आंदोलन बना दिया है। राज्य ने ढेर सारा निवेश किया, पुरुष और महिला दोनों टीमों को स्पॉन्सर किया।
टोक्यो ओलंपिक में महिला टीम का सेमीफ़ाइनल तक पहुँचना इसका नतीजा था। रानी रामपाल और सविता पूनिया राष्ट्रीय आइकन बन गईं। अब गाँवों में लड़कियाँ पढ़ाई छोड़ने की बजाय हॉकी स्टिक उठाती हैं।
बैडमिंटन और हैदराबाद: चैंपियनों की फैक्ट्री
हरियाणा की कुश्ती, उत्तर-पूर्व की बॉक्सिंग की तरह, बैडमिंटन हैदराबाद का गहना है।
पुलेला गोपीचंद अकादमी ने साइना नेहवाल दी, जिन्होंने भारत को पहला ओलंपिक बैडमिंटन पदक दिलाया। फिर आईं पीवी सिंधु—दो ओलंपिक पदकों के साथ उन्होंने खेल को नए स्तर पर पहुँचा दिया।
आज हर साल सैकड़ों लड़कियाँ रैकेट लेकर अकादमी पहुँचती हैं—यक़ीन के साथ कि वे अगली सिंधु बन सकती हैं।
तालिका: भारतीय महिला एथलीट्स जिन्होंने खेल की परिभाषा बदली
खिलाड़ी | खेल | उपलब्धि | असर |
---|---|---|---|
मैरी कॉम | बॉक्सिंग | 6 विश्व खिताब, ओलंपिक पदक | उत्तर-पूर्व में मुक्केबाज़ी की लहर |
पीवी सिंधु | बैडमिंटन | ओलंपिक रजत और कांस्य | बैडमिंटन को हर घर तक पहुँचाया |
साक्षी मलिक | कुश्ती | ओलंपिक कांस्य | पहली महिला पहलवान पदक विजेता |
मीराबाई चानू | वेटलिफ्टिंग | ओलंपिक रजत | वेटलिफ्टिंग को विश्व स्तर पर पहुँचाया |
रानी रामपाल | हॉकी | ओलंपिक सेमीफ़ाइनल तक कप्तानी | महिला हॉकी की छवि बदली |
सामाजिक असर
इस लहर ने खेल से आगे जाकर समाज को भी छुआ है।
- शिक्षा: छात्रवृत्तियाँ लड़कियों को पढ़ाई में टिकाए रखती हैं।
- शादी की उम्र: खेल बेटियों को जल्दी शादी से बचने का अधिकार देता है।
- आत्मविश्वास: मज़बूत महिला खिलाड़ियों की दृश्यता महत्वाकांक्षा को सामान्य बनाती है।
- लैंगिक भूमिकाएँ: जो परिवार शॉर्ट्स पर एतराज़ करते थे, वही अब मेडल घर की दीवार पर टाँगते हैं।
यह खेल नहीं, सामाजिक बदलाव है।
मीडिया और स्पॉन्सरशिप की असमानता
फिर भी, चुनौतियाँ हैं।
- पीवी सिंधु को ब्रांड मिलते हैं, लेकिन ज़्यादातर महिला खिलाड़ी संघर्ष करती हैं।
- मीडिया अभी भी पुरुष क्रिकेट पर झुका हुआ है।
- ग्रामीण इलाक़ों में सुविधाएँ कमज़ोर हैं।
लेकिन सोशल मीडिया ने खेल बदल दिया है। अब खिलाड़ी खुद ब्रांड बना रही हैं। हिसार की पहलवान इंस्टाग्राम से जुड़ती है। केरल की धाविका यूट्यूब से ट्रेनिंग करती है। गेटकीपर की पकड़ ढीली हो रही है।
महिला क्रिकेट: अभी लंबा सफ़र
क्रिकेट में महिला खिलाड़ियों का रास्ता लंबा है। 2023 में शुरू हुई विमेंस प्रीमियर लीग (WPL) एक बड़ा मोड़ था। पहली बार भारतीय महिला क्रिकेटरों को अपना मंच मिला—पैसे और दर्शकों के साथ।
हरमनप्रीत कौर, स्मृति मंधाना और शैफाली वर्मा अब घर-घर में नाम हैं।
सफर लंबा है—ग्रासरूट निवेश और समान वेतन की लड़ाई बाक़ी है। लेकिन WPL ने साबित किया—भारतीय दर्शक तैयार हैं।
ज़मीनी कहानियाँ
मध्य प्रदेश की लक्ष्मी, जो आदिवासी गाँव से है, राज्य स्तरीय एथलेटिक्स जीतकर स्कॉलरशिप पा गई। वह कहती है: “पहले मुझे लगता था ज़िंदगी गाँव तक सीमित है। अब लगता है मैं इंडिया के लिए दौड़ सकती हूँ।”
राजस्थान की एक पहलवान ने इतनी कमाई की कि भाई की पढ़ाई का ख़र्च उठा पाई।
केरल की एक फ़ुटबॉल खिलाड़ी महिला वर्ल्ड कप के यूट्यूब क्लिप देखकर ट्रेनिंग करती है।
ये छोटी कहानियाँ मिलकर बड़ा बदलाव बनाती हैं।
चुनौतियाँ अभी भी बाक़ी
- सुविधाएँ: कई खिलाड़ी अब भी टूटी पिचों और खराब जिम में ट्रेनिंग करती हैं।
- सुरक्षा: टूर्नामेंट के लिए यात्रा करना कई बार असुरक्षित माना जाता है।
- पहचान: गैर-क्रिकेट खेल अभी भी पहले पन्ने पर कम जगह पाते हैं।
- पे गैप: शीर्ष स्तर की महिला खिलाड़ियों की कमाई पुरुषों से बहुत कम है।
फिर भी, फर्क यह है कि अब खिलाड़ी खुलकर बोल रही हैं। मीराबाई चानू ने सुविधाओं की कमी पर आवाज़ उठाई। हॉकी खिलाड़ियों ने बराबरी की मांग की।
2030 का खेल परिदृश्य
अगर यही रफ़्तार रही, तो 2030 तक तस्वीर अलग होगी।
- महिला क्रिकेट की लोकप्रियता पुरुष आईपीएल के बराबर।
- दर्जनों ओलंपिक पदक महिला खिलाड़ियों के नाम।
- क्षेत्रीय अकादमियाँ तीरंदाजी, फ़ुटबॉल और एथलेटिक्स में चैंपियन पैदा करेंगी।
- बैडमिंटन, बॉक्सिंग, कुश्ती में महिला खिलाड़ी स्पॉन्सरशिप चार्ट पर हावी होंगी।
- महिला कोच और कमेंटेटर आम होंगे।
यह सपना नहीं, वास्तविकता की तरफ़ बढ़ता भारत है।
तालिका: भारत में पुरुष बनाम महिला खेल (वर्तमान तस्वीर)
पहलू | पुरुष खेल | महिला खेल | रुझान |
---|---|---|---|
मीडिया कवरेज | क्रिकेट केंद्रित | बढ़ रहा लेकिन असमान | सुधार हो रहा |
स्पॉन्सरशिप | स्थिर, बड़े पैमाने पर | सीमित, कुछ स्टार अपवाद | WPL के बाद बढ़ रहा |
बुनियादी ढाँचा | मेट्रो में मज़बूत | ग्रामीण इलाक़ों में कमज़ोर | सरकार सुधार रही |
फ़ैन इंगेजमेंट | उच्च और स्थापित | सोशल मीडिया से तेज़ी से बढ़ता | लगातार वृद्धि |
अंतिम सोच
रांची का वही धूल भरा मैदान। लड़कियाँ अपनी दौड़ ख़त्म करती हैं, हँसती हैं, फिर अगली स्प्रिंट के लिए लाइन में लग जाती हैं। देखने वाले को यह आम दिन लगेगा। लेकिन असल में यह एक क्रांति की आहट है।
भारतीय महिला खिलाड़ी अब अनुमति नहीं माँगतीं। वे जगह ले रही हैं, स्टीरियोटाइप तोड़ रही हैं और अगली पीढ़ी को प्रेरित कर रही हैं।
शायद कुछ साल बाद जब कोई गाँव की लड़की ओलंपिक में सोना जीतेगी, तब लोग याद करेंगे—यह बदलाव चमकदार स्टेडियमों में नहीं, बल्कि मिट्टी के मैदानों, छोटे जिमों और उन परिवारों में शुरू हुआ था जिन्होंने हाँ कहने की हिम्मत दिखाई।
यही है कहानी कि कैसे भारतीय महिला एथलीट्स खेल का परिदृश्य बदल रही हैं—एक पदक, एक कहानी और एक सपना एक बार में।

अवंती कुलकर्णी — इंडिया लाइव की फीचर राइटर और संपादकीय प्रोड्यूसर। वह इनोवेशन और स्टार्टअप्स, फ़ाइनेंस, स्पोर्ट्स कल्चर और एडवेंचर ट्रैवल पर गहरी, मानवीय रिपोर्टिंग करती हैं। अवंती की पहचान डेटा और मैदान से जुटाई आवाज़ों को जोड़कर लंबी, पढ़ने लायक कहानियाँ लिखने में है—स्पीति की पगडंडियों से लेकर मेघालय की गुफ़ाओं और क्षेत्रीय क्रिकेट लीगों तक। बेंगलुरु में रहती हैं, हिंदी और अंग्रेज़ी—दोनों में लिखती हैं, और मानती हैं: “हेडलाइन से आगे की कहानी ही सच में मायने रखती है।”