जब आप हिमालय की पगडंडियों पर कदम रखते हैं, तो यह केवल चलना नहीं होता—यह आत्मसमर्पण होता है। पतली हवा आपको धीमा कर देती है, साँसों की आवाज़ आपके पैरों से ज़्यादा सुनाई देती है, और हर मोड़ पर एक नया दृश्य खुलता है जो लगता है जैसे सदियों से वहीं आपका इंतज़ार कर रहा हो। हिमालय में ट्रेकिंग केवल खेल या छुट्टी नहीं है। यह इंसान और पहाड़ के बीच संवाद है—रोमांच और अनुशासन के बीच। और इसी संवाद में एक सवाल छुपा है: क्या हम हिमालय का आनंद लेते हुए उसकी असल पहचान को बचा भी पा रहे हैं?
मैंने कई इलाक़ों में ट्रेक किया है—उत्तराखंड की फूलों की घाटी, हिमाचल का स्पीति, और ऊपर लद्दाख तक। हर बार रोमांच मिला, लेकिन हर बार घाव भी दिखे। चट्टानों के बीच फँसी प्लास्टिक की बोतलें। जली हुई ज़मीन जहाँ आग जलाई गई थी। भीड़ इतनी कि फूल कम पड़ गए। सच्चाई साफ़ है: हिमालय भव्य है, लेकिन नाज़ुक भी। और सतत ट्रेकिंग कोई फैशनेबल शब्द नहीं—यह पहाड़ों और हमारे लिए ज़रूरी है।
हिमालय का नाज़ुक दिल
हिमालय कोई साधारण पर्वत शृंखला नहीं। यह पूरी धरती के जलाशय हैं। यही ग्लेशियर गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ बनाते हैं, जिन पर करोड़ों लोग निर्भर हैं। जब बेतरतीब ट्रेकिंग होती है, जब पर्यटन बिना नियंत्रण के बढ़ता है—तो केवल पगडंडियाँ नहीं टूटतीं, भविष्य हिल जाता है।
2019 में मैं रूपकुंड ट्रेल पर खड़ा था। जहाँ ठोस बर्फ़ होनी चाहिए थी, वहाँ सिर्फ़ ढीले पत्थर और धूल थी। स्थानीय गाइड ने सिर हिलाकर कहा: “दस साल पहले यहाँ सिर्फ़ बर्फ़ थी। अब देखो।” उसकी आवाज़ में गुस्से से ज़्यादा ग़म था।
फूलों की घाटी में भी वही हाल। यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट, लेकिन एक गर्मी की दोपहर मैंने देखा कि कुछ ट्रेकर्स सेल्फ़ी के लिए पगडंडी छोड़कर फूलों पर चल रहे थे। एक फोटो, हज़ारों फूल ख़त्म। यही छोटी-छोटी चीज़ें जुड़कर पूरे तंत्र को गिरा देती हैं।
जब रोमांच बोझ बन जाता है
एडवेंचर टूरिज़्म भारत में तेज़ी से बढ़ा है। और इससे ज़िंदगियाँ बदली हैं—होमस्टे से कमाई होती है, गाइड्स को काम मिलता है, युवाओं को शहर नहीं भागना पड़ता। लेकिन इसका दूसरा पहलू उतना ही सख़्त है।
- ज़्यादा ट्रेकर्स = ज़्यादा टेंट = ज़्यादा लकड़ी जलाना।
- ज़्यादा पैर = मिट्टी का कटाव।
- ज़्यादा पैकेट वाला खाना = कचरा, और पहाड़ों में कचरा ट्रक कभी नहीं आता।
केदारकांठा के पास मैंने एक ग्रुप को कैंप करते देखा। सुबह होते ही वहाँ नूडल्स के पैकेट, बीयर की बोतलें और सिगरेट के टुकड़े बिखरे पड़े थे। सफेद बर्फ़ पर लाल प्लास्टिक के दाग़। और वही लोग बाद में #NatureLover लिखकर फोटो डालते हैं। यह विरोधाभास ही हिमालय का बोझ है।
सतत ट्रेकिंग का असली मतलब
यह जटिल नहीं है। सतत ट्रेकिंग रोमांच कम नहीं करती। यह बस जागरूकता माँगती है। छोटे कदम, बड़े असर।
सिद्धांत | क्यों ज़रूरी | लम्बे समय का असर |
---|---|---|
कचरा वापस लाओ | ऊँचाई पर सफाई व्यवस्था नहीं | ट्रेल साफ़ रहेंगे |
छोटे समूह | मिट्टी और पौधों पर दबाव कम | पगडंडी टिकाऊ रहेगी |
स्थानीय गाइड/होमस्टे | रोज़गार और संस्कृति को बढ़ावा | मज़बूत समुदाय |
प्लास्टिक से बचो | ठंड में प्लास्टिक नहीं सड़ता | नदियाँ और ग्लेशियर सुरक्षित |
ये केवल विचार नहीं, ज़रूरी कदम हैं। इनके बिना, अगले दस सालों में कई ट्रेक बंद भी हो सकते हैं।
स्थानीय समुदाय की आवाज़
हिमालय के असली रखवाले गाँव वाले हैं। गड़रिए, गाइड्स, वे बच्चे जो 12,000 फीट पर खेलते बड़े हुए।
उत्तरकाशी में एक होमस्टे मालिक ने कहा: “ये पहाड़ तुम्हें तभी अपनाते हैं जब तुम इन्हें परेशान न करो।” यह पंक्ति मेरे भीतर बस गई। यह कोई क्लाइमेट साइंस नहीं, यह सम्मान है। और सम्मान ही स्थिरता की जड़ है।
मेघालय में भी यही देखा। वहाँ के युवक अब गुफ़ाओं में गाइड बन गए हैं। वे सिर्फ़ कमाने के लिए नहीं, बल्कि बचाने के लिए भी राह दिखाते हैं। मेहमान और रक्षक—दोनों भूमिकाएँ साथ निभाते हैं। यही मॉडल हर जगह चाहिए।
जलवायु संकट और हिमालय
संख्या डराती है। हिमालयी ग्लेशियर पहले से कहीं तेज़ पिघल रहे हैं। बीते बीस सालों में कई घाटियों में तापमान लगभग एक डिग्री बढ़ा है। इसका मतलब है:
- पहले आठ महीने बर्फ़ में ढके ट्रेल अब लगभग साल भर खुले रहते हैं।
- फूल जल्दी खिलते हैं, जिससे परागण की लय बिगड़ती है।
- चरवाहों की चरागाहें घट रही हैं।
लद्दाख में एक गाइड ने 2023 में कहा: “वो ग्लेशियर जिसे हम बचपन में गाँव से देखते थे, अब ग़ायब है। बच्चों को तो पता भी नहीं कि वो था।” उसके लिए क्लाइमेट चेंज ग्राफ़ नहीं, बल्कि ग़ैरमौजूदगी था।
अनुशासन में रोमांच
लोग मानते हैं कि नियम मज़ा मार देते हैं। लेकिन सच्चाई उलटी है।
हेमकुंड साहिब की बारिश भरी चढ़ाई पर मैं फिसल गया। पास चल रहे स्थानीय युवक ने हाथ पकड़कर कहा, “जल्दी मत करो। पहाड़ की चाल धीमी है।” उस एक वाक्य ने सोच बदल दी। अनुशासन ने रोमांच कम नहीं किया, गहरा कर दिया।
सतत ट्रेकिंग भी यही है। जब आप जानते हैं कि आपकी मौजूदगी नुकसान नहीं पहुँचा रही, तो हर नज़ारा और भी सच्चा लगता है।
लोकप्रिय बनाम टिकाऊ ट्रेक
हर ट्रेक समान नहीं। कुछ भीड़ में दब जाते हैं, कुछ बचे रहते हैं। फ़र्क है सतत प्रबंधन।
ट्रेक | समस्या | समाधान |
---|---|---|
रूपकुंड (उत्तराखंड) | कचरा, मिट्टी का कटाव | परमिट सिस्टम, कचरा शुल्क |
फूलों की घाटी | पगडंडी से बाहर जाना | सख़्त नियम, गाइडेड पथ |
केदारकांठा | भीड़भाड़ कैंपसाइट्स | समूह सीमा, कैंपिंग रोटेशन |
स्पीति सर्किट | वाहन प्रदूषण | साइकिल/पैदल सेगमेंट |
समाधान ट्रेक रोकना नहीं, सँभालना है। रोमांच और पर्यावरण दुश्मन नहीं, साथी हो सकते हैं।
भविष्य की झलक
आने वाले सालों में ट्रेक अलग दिखेंगे।
- परमिट से पहले पर्यावरण प्रशिक्षण।
- कैंपसाइट्स पर कचरे का ऑडिट।
- गाँव की पंचायतें तय करेंगी कि रोज़ कितने ट्रेकर्स जाएँ।
नेपाल के अन्नपूर्णा सर्किट में यह पहले से है। भारत धीरे-धीरे वहीं पहुँच रहा है। और यह अच्छा है। क्योंकि बिना सीमा, ट्रेक ही नहीं बचेंगे।
क्यों ज़रूरी है
ट्रेकिंग को लोग निजी रोमांच समझते हैं—मेरे जूते, मेरी पगडंडी, मेरा thrill। लेकिन हिमालय किसी का निजी नहीं। यह साझा धरोहर है। यह नदियाँ देता है, संस्कृतियाँ सँभालता है, जलवायु को थामे रहता है। अगर इसे खेल का मैदान बना दिया, तो खो देंगे।
सतत ट्रेकिंग ज़रूरी है क्योंकि यह पहाड़ों को पहाड़ बनाए रखती है। यह अपराधबोध नहीं, आभार है।
अंतिम सोच
हर ट्रेक के बाद मैं सोचता हूँ—मैंने पीछे क्या छोड़ा? अगर सिर्फ़ पदचिह्न, तो ठीक। अगर कचरा और टूटे पौधे, तो यह असफलता है।
हिमालय संतुलन सिखाता है। बिना घाटियों के चोटियाँ नहीं उठतीं। रोमांच और पारिस्थितिकी विरोधी नहीं, साथी हैं। सम्मान के साथ चलो, तो रोमांच और गहरा होता है। लापरवाही से चलो, तो दोनों ग़ायब।
स्पीति की एक शाम मैं लेटकर आसमान देख रहा था। तारे इतने घने कि लगा धरती आकाशगंगा के बीच टंगी है। सन्नाटा पूरा था। उस सन्नाटे ने समझा दिया: जितना कम लेते हो, उतना ज़्यादा पाते हो। और अगर ट्रेकिंग यह सिखा सके, तो शायद हम इन पहाड़ों को बचा पाएँगे—सिर्फ़ एडवेंचर के लिए नहीं, बल्कि अस्तित्व के लिए।

अवंती कुलकर्णी — इंडिया लाइव की फीचर राइटर और संपादकीय प्रोड्यूसर। वह इनोवेशन और स्टार्टअप्स, फ़ाइनेंस, स्पोर्ट्स कल्चर और एडवेंचर ट्रैवल पर गहरी, मानवीय रिपोर्टिंग करती हैं। अवंती की पहचान डेटा और मैदान से जुटाई आवाज़ों को जोड़कर लंबी, पढ़ने लायक कहानियाँ लिखने में है—स्पीति की पगडंडियों से लेकर मेघालय की गुफ़ाओं और क्षेत्रीय क्रिकेट लीगों तक। बेंगलुरु में रहती हैं, हिंदी और अंग्रेज़ी—दोनों में लिखती हैं, और मानती हैं: “हेडलाइन से आगे की कहानी ही सच में मायने रखती है।”