आज भी किसी बॉलीवुड फ़िल्म सेट पर जाइए, तो वही पुराना शोर-गुल दिखेगा—स्पॉटबॉय तारें खींचते भाग रहे हैं, डायरेक्टर तीन भाषाओं में “एक्शन!” चिल्ला रहा है, और कोई सुपरस्टार आईने के सामने संवाद दोहराते हुए अदरक वाली चाय पी रहा है। लेकिन इस अफरातफरी के बीच किसी कोने में शायद एक लैपटॉप भी रखा हो, जिसमें एआई मॉडल चल रहा हो। वह स्क्रिप्ट की लाइनें बदल रहा है, अगले डांस सीक्वेंस के लिए कॉन्सेप्ट आर्ट बना रहा है, या गीतकार को सही तुक खोजने में मदद कर रहा है। जो भी हो, यह हो रहा है। बॉलीवुड और एआई की मुलाक़ात हो चुकी है।
और जैसे हर हिंदी फ़िल्म की पहली मुलाक़ात होती है—यह भी नाटकीय है, शक-शुबहों से भरी, और कहीं न कहीं रोमांस भी इसमें झलक रहा है।
बॉलीवुड का पुराना फ़ॉर्मूला
दशकों तक बॉलीवुड की सबसे बड़ी ताक़त और सबसे बड़ी कमजोरी उसका फ़ॉर्मूला रहा। लड़का-लड़की मिले। बारिश में गाना। पारिवारिक झगड़ा। तीन घंटे का सफ़र जिसमें प्यार, जुदाई और अंत में मिलन।
लोगों ने इसे चाहा—जब तक कि चाहत घटने नहीं लगी। 2000 के दशक के आखिर तक दर्शक कहने लगे: “हर फ़िल्म एक जैसी लगती है।” इस बीच नेटफ़्लिक्स और अमेज़न प्राइम ने भारतीय दर्शकों को कोरियाई थ्रिलर, स्पैनिश हाइस्ट ड्रामा और अमेरिकी सिटकॉम से परिचित कराया। अचानक बॉलीवुड का मसाला फीका लगने लगा।
इंडस्ट्री को नए खून की ज़रूरत थी। और एआई सिर्फ़ नया खून नहीं लाया, वह तो एड्रेनलिन की तरह आया।
स्क्रिप्ट्स पर टर्बोचार्ज
बॉलीवुड में स्क्रिप्ट लिखना हमेशा कठिन काम रहा। लेखक कम पैसे पाते हैं, सेट पर स्क्रिप्ट बदल जाती है, और कई बार कहानी स्टार की पसंद पर टिकी रहती है। लेकिन एआई इस तालिका को पलट रहा है।
मुंबई के एक युवा लेखक ने कहा, “पहले हफ़्तों लग जाते थे एक ड्राफ़्ट लिखने में। अब मैं अपनी आइडियाज़ एआई में डालता हूँ—वह दस अलग-अलग नैरेटिव आर्क्स निकाल देता है। सीधे उनका इस्तेमाल नहीं करता, लेकिन सोचने का दायरा ज़रूर बढ़ जाता है।”
ज़रा सोचिए—अगर शोले 2050 में सेट होती और गब्बर एक बाग़ी एआई होता? या मुग़ल-ए-आज़म को कोर्टरूम ड्रामा की तरह सुनाया जाता? एआई ये विकल्प मिनटों में बना सकता है। लेखक फिर उन्हें छाँटता, सुधारता, उलटता-पलटता है। यह प्रतिस्थापन नहीं, चुनौती है।
कास्टिंग की नई परिभाषा
बॉलीवुड का सबसे बड़ा जुनून है—कास्टिंग। सुपरस्टार के लिए पूरा बजट दाँव पर लग जाता है। लेकिन एआई अब इस लॉजिक को चुनौती दे रहा है।
डीपफेक और जेनरेटिव वीडियो के ज़रिए कोई निर्देशक 1975 वाले अमिताभ बच्चन को 2025 के रणवीर सिंह के साथ डांस करवा सकता है। या मधुबाला को साइ-फ़ाई थ्रिलर में नायिका बना सकता है।
यह अब कल्पना नहीं है। 2023 में एक शॉर्ट फ़िल्म वायरल हुई जिसमें शाहरुख़ ख़ान और दिलीप कुमार को पिता-पुत्र की भूमिका में दिखाया गया। आधे दर्शक हैरान थे, आधे नाराज़। लेकिन संदेश साफ़ था: एआई समय की सीमा तोड़ सकता है।
सवाल हैं—क्या गुज़रे हुए कलाकारों के परिवार को रॉयल्टी मिलेगी? क्या दर्शक एल्गोरिद्म से बने अभिनय को स्वीकारेंगे? बॉलीवुड ने जवाब अभी नहीं दिया। लेकिन बहस शुरू हो चुकी है।
संगीत: जहाँ एआई सबसे सहज है
बॉलीवुड की जान हमेशा उसका संगीत रहा है—लता की आवाज़ से लेकर ए.आर. रहमान के प्रयोग तक। और अब एआई चुपचाप इसी दुनिया में दाख़िल हो रहा है।
पिछले साल जुहू के एक स्टूडियो में मैंने एक कंपोज़र को देखा। उसने टाइप किया: “रोमांटिक मानसून, सॉफ्ट तबला, अर्बन मूड।” सेकंडों में सॉफ़्टवेयर ने एक धुन बना दी। वह पूरी नहीं थी, लेकिन गुनगुनाने लायक़ थी।
असल ताक़त है—दोहराव में। पहले जहाँ एक धुन मिलती थी, अब पचास मिलती हैं। संगीतकार उनमें से चुनता है, बदलता है, परतें जोड़ता है। उसने हँसकर कहा, “ये ऐसे है जैसे बीस असिस्टेंट हों, जिन्हें कभी थकान न लगे।”
आलोचक कहते हैं—इससे मौलिकता मर जाएगी। लेकिन सच्चाई यह है कि बॉलीवुड का संगीत सालों से खुद को दोहरा ही रहा है। अगर एआई उन्हें ताज़ा सोचने पर मजबूर करे, तो क्या यह नुकसान है?
विज़ुअल इफ़ेक्ट्स: कल्पना का विस्तार
बॉलीवुड हमेशा हॉलीवुड की CGI से ईर्ष्या करता रहा। बाहुबली या ब्रह्मास्त्र जैसी फ़िल्मों ने महत्वाकांक्षा दिखाई, लेकिन आलोचना भी झेली—“नकली लग रहा है।”
एआई आधारित वीएफ़एक्स यह खेल बदल सकता है। जेनरेटिव मॉडल अब लैपटॉप पर पूरे शहर, सेनाएँ या आकाशगंगाएँ बना सकते हैं, जिनके लिए पहले करोड़ों चाहिए थे।
एक निर्देशक ने कहा, “पहले महंगा होने के डर से सीन काट देते थे। अब पहले एआई से रेंडर बनाते हैं।”
इसका मतलब है कि फैंटेसी और साइ-फ़ाई को अब जगह मिल सकती है। मिथकीय गाथाएँ अब कार्टून जैसी नहीं, बल्कि सचमुच दिव्य लग सकती हैं।
एआई की खामियाँ
हर क्रांति की तरह, इसके साए भी हैं। एआई से बॉलीवुड पर बाढ़ की तरह सामान्य कंटेंट का खतरा है। पुराने हिट्स पर ट्रेन हुए मॉडल वही फ़ॉर्मूले दोहराएँगे।
एक प्रोड्यूसर ने शेख़ी बघारी: “हमने एआई से नॉर्थ और साउथ दोनों को भाने वाली लव स्टोरी माँगी। पाँच मिनट में मिल गई।” वह खुश था। मैं डरा हुआ था।
अगर स्टूडियो केवल एल्गोरिद्म की हाँ में हाँ मिलाएँगे, तो और भी फीकी फ़िल्में आएँगी। दर्शक केवल अनुकूलित प्लॉट नहीं चाहते। वे सरप्राइज़, जोखिम और अव्यवस्था चाहते हैं। और अव्यवस्था—यह चीज़ एआई शायद ही बना पाए।
अभिनेता और असुरक्षा
आइए मान लें—अभिनेता घबराए हुए हैं। अगर एआई चेहरे और आवाज़ बना सकता है, तो इंसानी स्टार का क्या बचेगा?
अंधेरी के एक टीवी अभिनेता ने मुझसे कहा: “कल वे मुझे स्कैन करेंगे और हमेशा के लिए इस्तेमाल करेंगे। मुझे खुद की ज़रूरत नहीं रहेगी।” यह डर बेबुनियाद नहीं। हॉलीवुड में यूनियनों ने एआई क्लोनिंग के ख़िलाफ़ सुरक्षा की माँग पहले ही शुरू कर दी है।
बॉलीवुड में, जहाँ कॉन्ट्रैक्ट ढीले हैं, जोखिम और बड़ा है। नए कलाकार पैसे के लिए स्कैन मान सकते हैं, और फिर उनका असली काम ही छिन सकता है।
लेकिन कुछ सितारे इसे अवसर भी मानते हैं। सोचिए—शाहिद कपूर साल में दस फ़िल्में करें, लेकिन डिजिटल रूप से। ज़्यादा पैसा, ज़्यादा दर्शक, कम मेहनत। यह लालच बड़ा है।
दर्शक: आख़िरी जज
आख़िरकार सब कुछ दर्शक तय करेगा। भारतीय दर्शक भावुक भी हैं और प्रयोगशील भी।
हम सितारों की पूजा करते हैं। उनके गुज़रने पर आँसू बहाते हैं। लेकिन हम कोरियाई ड्रामे और जापानी ऐनिमे भी देखते हैं। तो क्या हम एआई-बॉलीवुड स्वीकार करेंगे? शायद हाँ—अगर कहानी दिल छू ले।
क्योंकि सच यह है कि बॉलीवुड में बिकता वही है जो भावनाएँ जगाए। अगर एल्गोरिद्म हमें हँसा, रुला, नचवा सके—तो अधिकतर लोग यह नहीं पूछेंगे कि यह कैसे बना। ख़तरा बस वहीं है जब फ़िल्में खोखली लगेंगी, ज़्यादा ऑप्टिमाइज़्ड और बेजान।
क्यों एक-दूसरे की ज़रूरत है
बॉलीवुड हमेशा भावनाओं का तूफ़ान रहा है। एआई है तर्क की ताक़त। दोनों साथ आएँ तो संतुलन बन सकता है। एआई कल्पना बढ़ा सकता है, थकाऊ काम आसान कर सकता है, लागत घटा सकता है। इंसान उसमें दिल, पागलपन और सहजता भर सकता है।
एक गीतकार ने कहा था: “एआई मुझे शब्द सुझा सकता है, लेकिन यह मैं ही जानता हूँ कि वह लाइन अरिजीत सिंह की आवाज़ में लाखों के सामने कैसी लगेगी।” यही वह रेखा है जिसे मशीन पार नहीं कर सकती।
आगे के दृश्य
तो आने वाले दस साल कैसे होंगे? कुछ संभावनाएँ:
- आशावादी: बॉलीवुड एआई को सह-निर्माता की तरह अपनाए। स्क्रिप्ट्स साहसी हों, वीएफ़एक्स सस्ते हों, संगीत समृद्ध हो। भारत दुनिया को सिर्फ़ सितारे नहीं, कहानियों के नए ढाँचे भी निर्यात करे।
- निराशावादी: स्टूडियो एआई का दुरुपयोग कर सस्ता कंटेंट बनाते रहें। कलाकारों का शोषण हो, दर्शक बोर हों, सुनहरा दौर कभी न आए।
- सबसे यथार्थवादी: बीच का रास्ता। कुछ शाहकार, कुछ फ़्लॉप। एक हाइब्रिड सिनेमा जिसमें पता ही न चले कि इंसान ने क्या बनाया और मशीन ने क्या।
और शायद यही उचित भी है। बॉलीवुड हमेशा अव्यवस्थित रहा है—कहीं चुराई गई कहानियाँ, कहीं दिव्य प्रेरणा, कहीं पैसों की भूख, कहीं सच्ची कला। एआई का अध्याय क्यों अलग होगा?
अंतिम सोच
सवाल यह नहीं है कि एआई बॉलीवुड को बदलेगा या नहीं। वह तो बदल चुका है। असली सवाल यह है कि क्या बॉलीवुड खुद को इतना बदलेगा कि एआई का सही इस्तेमाल कर पाए।
अगर इंडस्ट्री फ़ॉर्मूले पकड़े रहे, तो एआई केवल पतन तेज़ करेगा। लेकिन अगर यह प्रयोग को अपनाए, परंपरा और तकनीक दोनों का सम्मान करे, तो यह दुनिया को नया रूप दिखा सकता है—एक ऐसा सिनेमा जो गहराई से भारतीय भी हो और भविष्यवादी भी।
1975 में शोले ने बॉलीवुड के अतीत को परिभाषित किया। शायद 2025 में कोई एआई-समर्थित महाकाव्य उसका भविष्य परिभाषित करेगा। फर्क बस इतना होगा कि कहानी मशीन ने नहीं, इंसानों ने मशीन को नए ढंग से इस्तेमाल करके गढ़ी होगी।
यही तो बॉलीवुड की आत्मा है—असंभव प्रेम कहानी। इस बार प्रेम है कला और एल्गोरिद्म के बीच। और हर महान बॉलीवुड रोमांस की तरह, अंजाम इस पर निर्भर करेगा कि हम उसके लिए कितना लड़ते हैं।

अवंती कुलकर्णी — इंडिया लाइव की फीचर राइटर और संपादकीय प्रोड्यूसर। वह इनोवेशन और स्टार्टअप्स, फ़ाइनेंस, स्पोर्ट्स कल्चर और एडवेंचर ट्रैवल पर गहरी, मानवीय रिपोर्टिंग करती हैं। अवंती की पहचान डेटा और मैदान से जुटाई आवाज़ों को जोड़कर लंबी, पढ़ने लायक कहानियाँ लिखने में है—स्पीति की पगडंडियों से लेकर मेघालय की गुफ़ाओं और क्षेत्रीय क्रिकेट लीगों तक। बेंगलुरु में रहती हैं, हिंदी और अंग्रेज़ी—दोनों में लिखती हैं, और मानती हैं: “हेडलाइन से आगे की कहानी ही सच में मायने रखती है।”